Tuesday, April 20, 2010

बारिश का मौसम।



हर शाम बनता सँवरता है मौसम,
शायद अंतहीन इंतजार करता है मौसम।

किसी को पानी की तमन्ना किसी को भीगने का गम,
हर किसी को कहाँ खुश करता है मौसम।

सदा साथ रह कर भी वो अजनबी सा है,
मै जो गमजदा हूँ तो क्यों खुश है मौसम।

संभल संभलकर कदम रखती वो आई थी,
उस रोज भी तो खूब बरसा था मौसम।

शायद वो इस बार चले आए इस ओर,
इसी तमन्ना में सड़को पर बिताए कई मौसम।

किसी की नजरों से भीगा हूँ रूह तक,
अब क्या भिगोएगा यह बारिश का मौसम।

कच्ची उम्र और टूटी-फूटी भावनाएँ इनसे ही बनी हैं कुछ अधपकी सी कविताएँ जो उन दिनों के तमाम गडबडझाले के साथ प्रेम, प्यार का परिचय है। आज इनमें दम नहीं लगता पर लिख रहा हूँ बिना सुधारे....हमने भी सुधर कर क्या पा लिया...है।

मैं फिर खड़ा हूँ, यह सोच कर,

जैसा मैं तुम्हारे लिए सोचता था,

कि आएगी तुम्हे मेरी याद

और तुम्हारी याद फिर दौड़ आएगी।

लेकिन,

नहीं होता

मैं ही करता जतन तुम्हें याद करने का

तुम्हारी याद नहीं आती, तुम्हारी तरह

कितनी समानता हैं तुममें और तुम्हारी याद में

और मैं
हमेशा ही इंतजार में रहा चाहे कल्पना हो
या
हकीकत..

Friday, April 9, 2010

तुम जो अब `आप` हों


तुमः 1

तुम क्यों चले आते हो सच में,
तुम स्वप्न में ही अच्छे लगते हो,
कम से कम मेरा कहना तो मानते हो।


तुमः २

तुम्हे भूल जाना दिल पर पत्थर रखने जैसा था,
पर आज इस भरी दुपहरी सी
जिंदगी में उसी पत्थर के नीचे,
थोड़ी सी नमी बची है।
मैं अक्सर वहाँ थोड़ा जी लेता हूँ।

तुमः ३

यह सही है कि मैने दिल तोड़ा
तुम्हे तन्हा किया,
हर वो बात जो तुम्हे पसंद थी वो कहना छोड़ा
पर यह भी तो सच है ना कि जब हममें प्यार था,
तुम्हे उतना प्यार नहीं था जितना मुझे था।

Sunday, April 4, 2010

जिंदगी के प्रोजेक्टर में अटके




`और क्या..`‍ फिर मौन.. शब्द गले में अटके। उन भावों को गला स्वर भी नहीं दे पाता। चुप में सबकुछ था, जो शब्द में कहीं नहीं था। फिर जैसे शब्दों ने खुद को छुपाने की जंग शुरू की..खामोशी के उलट वे कहते रहे.. वो मत सुनना जो हम नहीं कहते...पूरे आठ मिनट यह जंग चलती रही। रिश्ता वहाँ तक आ पहुँचा जहाँ शब्द बेमानी है..आवाज सुनकर या खामोशी गिनकर बात होती है। यह वही स्वर थे जो पहले कहते थे..मुझसे बात न करना...। अपने वादे को तोड़ते वक्त कैसा लगता होगा उसका चेहरा..क्या करते होंगे उसके हाथ, वो बाल, वो आँखे, वो सबकुछ जो उसके पास है। कैसे दिखते होंगे। कैसे कोई इतना बेकरार होता होगा, मजबूर होकर वो करता है जो वो बिलकुल नहीं चाहता। क्या यह प्यार है?...वो स्वीकार नहीं करता..संस्कार और दुनियादारी के बंधन करने भी नहीं देंगे। पर एक सच है जो दोनों की आँखों में हैं। जैसे एक नदी है सारे पत्थर उसे रोकते हैं, पेड़ उसे बाँधते हैं, हर चीज विरोध करती है, लेकिन वो मिलती उसी सागर में जाकर जहाँ उसका वजूद खोना है, जहाँ उसका `मैं` खत्म होना है। और सागर..उसका अपना क्या है..नदियाँ ही तो है, जो उसे बनाए है...उसके पास सिर्फ अंतहीन इंतजार है..किसी के आने का, विलीन होने का। दोनों के शाश्वत सत्य है। दोनों की कोशिश खुद को खत्म करने की, लेकिन दोनों लगे हैं अपनी पहचान बनाने में। खर्च करते हैं खुद को। काफी दिनों तक चलता है यह प्रयास। फिर एक दिन लगता है दुनिया एक भ्रम है, हम इसमें हैं ही नहीं, एक मायाजाल, एक जादू है। सांसे घुटने लगती है...जिंदा रहने के लिए हम दौड़ पड़ते हैं। अपने सच की तरफ..बस इसी दौड़ में टूट जाते हैं सारे बंधन..हमारे अपने वादे..संस्कार, दुनियादारी, सारे तर्क। और बात करते है...फिर बात करते वक्त ही याद आने लगती है वही दुनिया...फिर शब्द खामोशी का नकाब ओढ़ते हैं..हम कुछ नहीं कहते बस एक दूसरे को समझते हैं। इसी यायावरी में जिंदगी कट रही है, इसी दौड़ में किसी रोज फना हो जाएगे..और जिंदगी की फिल्म दिखा रहा प्रोजेक्टर का चक्का खाली घुमने लगेगा हमारी सारी फिल्म लपेट कर। क्या जब चैन मिलेगा..?

Sunday, March 28, 2010

नींद की देहरी पर ख्वाब


दर्द कब होने लगे पता रहता है..पता रहे तो दर्द कौन होने दे। इसी तरह ख्वाब है कब आ जाए किसके आ जाए। सुबह-सुबह के इस ख्नाब की तामीर क्या होगी? बस इंतजार है। उठने को ही था कि नींद में लगा मेरे अखबार का दफ्तर है। सभी काम कर रहे हैं। इसमें कुछ ऐसे भी लोग है जो आज मेरे साथ है पर दफ्तर में कभी नहीं थे। सीट को लेकर झगड़ा। पीछे लड़कियों के पास बैठने का इरादा पर लोगों की चुभती नजरों का डर..तभी कोई वहाँ जाकर बैठा..फिर हल्ला मुझमें स्वभावगत इर्ष्या का भाव। बिखरी टेबल..सभवतः बरसात के दिन। तभी कोई पीले सूट में जिस पर काली बेलों वाली दूर-दूर डिजाइन। मेरे एकदम पास आकर खड़ी हुई इकहरी सी वो..। गर्दन घुमाने पर दिखाई दी, मन ने पहचाना पर फिर काम में लग गया। फिर पीठ घुमा के देखा। पतले से चेहरे पर बड़ी सी मुस्कान। चेहरे पर उगी दो आँखें..जिनमें कोई न देख ले का डर और मुझे खुश कर देने की खुशी एक साथ थी। मुझे लगा स्वप्न है। वो कहाँ इतनी दूर आ सकता है। वो जिसे कुछ याद नहीं। याद भी हो तो जो भूलने की कोशिश में लगा रहता है हरदम। वो यहाँ नहीं हो सकता। लेकिन मुझमें आते कंपन बता रहे थे कि यह सच है। मैने पूछा क्या तुम ही आई हो। उकताहट भरा जवाब - ‍सच है मैं ही हूँ..अब चलो बाहर। दफ्तर की घचापच में असहज होती वो बाहर निकल गई। मैं हवला-बावला जैसे उसके हर निमंत्रण, हर फोन, हर मुलाकात पर होता हूँ, उतना ही अनिंयंत्रित। बारिश से बचने के लिए कोट पहन लूँ। मैने सोचा क्योंकि हर बार की तरह शर्ट खराब लग रही थी। सारे पेन बिखरे कागज उड़ने को हुए। लगा भूचाल है। सब कुछ जल्द करने का ख्याल उसके बाहर अकेले इंतजार करने का गम या उससे मुलाकात के एक पल खो जाने का डर यकीन से नहीं कह सकता क्या भारी था उस पल। जोर जबर्दस्ती मैं शर्टिंग करने में सदा की तरह पेंट का पिछला हुक नहीं लगा..चेन आधी उतरी और शर्ट झांकने लगा..झुंझलाकर वैसे सब छोड़कर बाहर भागा। लगता है अभी बारिश हुई है। उसके चेहरे पर वही भाव कि वह प्रेमवश नहीं आई है, वह मजबूरी में मिलने नहीं आई है, वह तुम पर उपकार करने भी नहीं आई है। यह अलग बात है कि यही सब सच था। चेहरे बस यह कि बस यूँ ही आ गई। मैने हाथ में हाथ लिया, कुछ कठोर था..पहले की नर्म नहीं था। नीचे सफेज पायजामा (पता नहीं उसे क्या कहते हैं), पीठ पर लंबी चोटी, लहराते हुए चलना, सामने देखना और बात मुझसे करने वाल कातिल अंदाज। कोशिश करना की आँखे ना मिल पाए क्योंकि मिल गई तो उसका नाटक खत्म होने लगता है। धीरे से आगे बढ़ते मैंने कहा-यही तरीका है..कुछ दिन बात न करों तो तुम खुद ही आ जाते हो..तुम्हे झुकाने का बरसों से यही तरीका है..है ना? वह इसे अनसुना कर के बोली-मुझे भुख लगी है, कुछ खिलाओ। मैने शरारत कर कहा- नानवेज चलेगा..वो बोली खलिश के साथ हाँ और थोड़ी सी पीना भी है। इस बिल्डिंग के पार है एक दुकान , वो इमारतें देखती जा रही है..लगता है हम किसी कालेज के परिसर में हैं। ऊँची ऊँची लाल इमारतें। बाथरूम के पास से शार्टकट जाता है। हम घुसे मैने एकांत देखकर उसके कान पर चूम लिया। उसका प्रतिकार प्रतीकात्मक था..पर कोई प्रत्युतर भी नहीं था। आगे बढ़ते बढ़ते रास्ते भूलने लगे..गंदगी थी चारों तरफ आगे सब बंद बंद था। लगा कोई हमारे पीछ है..हम दीवारों पर चढ़े यहाँ गए वहाँ गए पर सब कुछ गड्डमड्ड। उसकी आँखों में मुझे खोने का गम, पीड़ा..सब कुछ खाली खाली सा पता नहीं क्या हुआ...और एक झटके से नींद टूट गई। क्या तुम मुझे स्वप्न में भी इसी तरह मिलोगी..क्या हम अपनी बात कभी पूरी कर पाएँगे...क्या एक बात जो मैं कहना चाहता हूँ और तुम सुनना वो कभी किसी जन्म मे नहीं कही जा सकेगी। शायद यह शाश्वत सत्य है हमारे प्रेम की तरह..।

प्रतिष्ठा

हम अकेले नहीं थे। हमारे साथ एक साईकिल थी जिसे हाथ में लिए हम कॉलेज से निकल रहे थे। और हवा को वो हिस्सा भी जो उसके दुप्पटे को मेरे हाथ पर ला ...