Tuesday, July 21, 2020

प्रतिष्ठा

हम अकेले नहीं थे। हमारे साथ एक साईकिल थी जिसे हाथ में लिए हम कॉलेज से निकल रहे थे। और हवा को वो हिस्सा भी जो उसके दुप्पटे को मेरे हाथ पर ला देता, जो काफी देर से हटता पर.. लगता जल्दी हट गया। वैसे उसकी न खत्म होने वाली बातें भी चल रही थी। याद नहीं क्या-क्या कहा उसने, पर उसकी आवाज की खनक और आंखों की चमक आज भी याद है। साथ चलते-चलते यूं लगने लगा था कि बस अब पिघल कर मिल ही जाएंगे।
अचानक उसने रोकते हुए कहा - वो सड़क के पार दुकानें देखते हो.. वो मेरे पापा के जानने वालों की है, आपकों साथ देखा तो घर पर खबर लग जाएगी और फिर सवाल ही सवाल..वो कहती गई। जैसे स्वप्न से जाग कर मैने कहा-हम क्या गलत कर रहे हैं, क्या इतना विश्वास नहीं..। कुछ देर खामोशी के बाद उसने अपने सारे जादू को आंखों में समेटते हुए कहा- आप ठीक कहते पर यह मेरी प्रतिष्ठा का सवाल है...।

यह कहते हुए उसके गालों पर आई बालों की एक लट हवा से बालों में ही कहीं गुम हो गई। फिर वो सड़क कभी पार न हो सकी।
आज पंद्रह बरस के बाद उस शहर को आना हुआ तो वो सड़क भी दिखाई दी। हिम्मत कर पार की थी कि आस पास के लोगों की नजरें चुभती सी लगी , लगा गलत कर रहा हूँ, पर सोचा कि अब वो यहा कहां होगी, पता नहीं उसका घर कहां होगा..इन्ही ख्यालों में उलझा हुआ कब उसके सामने आ खड़ा हुआ पता नहीं चला। बच्चों को स्कूल बस में छोड़ने के बाद उसने देख कर मुस्कराते हुए कहा तुम यहां....। मैं अपराध बोध से गड़ा, चुपचाप। उसी ने कहा मुझे खोजते आ गए क्या। और फिर इतने बरसों के हिसाब पूछते हुए हम फिर साथ चल रहे थे।
समय उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाया आवाज की खनक अब भी वैसी ही थी, उसके शब्दों के झरनों में बहता उसके साथ बस चलता रहा। तभी अचानक गली के मोड़ पर उसने रुकते हुआ कहा- यहां से हमारे पहचान वालों के मकान है और आपकों साथ देखा तो पता नहीं क्या सोचेंगे और मेरे पति को खबर लगी तो फिर सवाल होंगे और मैं झूठ नहीं बोल पाऊंगी...।

एक सांस में सब कह दिया उसने। मैंने इतना ही कह पाया कि अब भी डरती हो, तुम पर क्या अभी भी विश्वास नहीं...उसने अपने साड़ी के पहलू को ठीक करते हुए आंखें मिलाते हुए कहा- वो सब ठीक है पर यह मेरी प्रतिष्ठा का सवाल है...। एक पल को लगा कि चलता-फिरता रास्ते का शोर जैसे खामोश हो गया। गहन चुप्पी के साथ मैं लौट आया मेरे पास इतने बरस के बाद भी इसका कोई जवाब नहीं था।

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प्रतिष्ठा

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