कई सालों के बाद फ़ोन लगाया,
`हलो`...
तो उसने कहा... `बोलो...`
मैने कहा `मैं बोल रहा हूँ `!
`हाँ पता है...और बताओं...`
`तुम्हे अजीब नहीं लगा इतने दिनों बाद फ़ोन आया`...लड़खड़ाते हुए शब्दों से मैने कह दिया।
`नहीं...`
फिर खामोशी । खामोशी में कुछ सुनने के लिए मोबाइल कान पर ज़ोर सटा दिया, सोचा मन की थाह पा जाउं। पर दोनों और से खामोशी ही रही।
फिर मैने कहा-`चुपचाप रहती हो तो अच्छी लगती हो...`
`तुम भी...`
फिर चुप्पी.। सांसों की आवाज़ के सहारे दोनों कुछ कहते रहे, सुनते भी रहे, आंखों से लेकर मन तक सब भींग गए, गीलापन समेटते हुए मैने पूछ लिया।
`मेरी याद आती है, तुम्हे`!
और भी लंबी खामोशी...कई जवाब मेरे जहन मैं आते रहे, कुछ अच्छा भी नहीं लगा, क्यों पूछ लिया होगा मैने?
बड़ी देर बात उसने कहा...
`तुम्हे क्या लगता है...`
मैं क्या कहता..
और इस बार भी अनुतरीत रह गया सवाल...।
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