Sunday, March 28, 2010

नींद की देहरी पर ख्वाब


दर्द कब होने लगे पता रहता है..पता रहे तो दर्द कौन होने दे। इसी तरह ख्वाब है कब आ जाए किसके आ जाए। सुबह-सुबह के इस ख्नाब की तामीर क्या होगी? बस इंतजार है। उठने को ही था कि नींद में लगा मेरे अखबार का दफ्तर है। सभी काम कर रहे हैं। इसमें कुछ ऐसे भी लोग है जो आज मेरे साथ है पर दफ्तर में कभी नहीं थे। सीट को लेकर झगड़ा। पीछे लड़कियों के पास बैठने का इरादा पर लोगों की चुभती नजरों का डर..तभी कोई वहाँ जाकर बैठा..फिर हल्ला मुझमें स्वभावगत इर्ष्या का भाव। बिखरी टेबल..सभवतः बरसात के दिन। तभी कोई पीले सूट में जिस पर काली बेलों वाली दूर-दूर डिजाइन। मेरे एकदम पास आकर खड़ी हुई इकहरी सी वो..। गर्दन घुमाने पर दिखाई दी, मन ने पहचाना पर फिर काम में लग गया। फिर पीठ घुमा के देखा। पतले से चेहरे पर बड़ी सी मुस्कान। चेहरे पर उगी दो आँखें..जिनमें कोई न देख ले का डर और मुझे खुश कर देने की खुशी एक साथ थी। मुझे लगा स्वप्न है। वो कहाँ इतनी दूर आ सकता है। वो जिसे कुछ याद नहीं। याद भी हो तो जो भूलने की कोशिश में लगा रहता है हरदम। वो यहाँ नहीं हो सकता। लेकिन मुझमें आते कंपन बता रहे थे कि यह सच है। मैने पूछा क्या तुम ही आई हो। उकताहट भरा जवाब - ‍सच है मैं ही हूँ..अब चलो बाहर। दफ्तर की घचापच में असहज होती वो बाहर निकल गई। मैं हवला-बावला जैसे उसके हर निमंत्रण, हर फोन, हर मुलाकात पर होता हूँ, उतना ही अनिंयंत्रित। बारिश से बचने के लिए कोट पहन लूँ। मैने सोचा क्योंकि हर बार की तरह शर्ट खराब लग रही थी। सारे पेन बिखरे कागज उड़ने को हुए। लगा भूचाल है। सब कुछ जल्द करने का ख्याल उसके बाहर अकेले इंतजार करने का गम या उससे मुलाकात के एक पल खो जाने का डर यकीन से नहीं कह सकता क्या भारी था उस पल। जोर जबर्दस्ती मैं शर्टिंग करने में सदा की तरह पेंट का पिछला हुक नहीं लगा..चेन आधी उतरी और शर्ट झांकने लगा..झुंझलाकर वैसे सब छोड़कर बाहर भागा। लगता है अभी बारिश हुई है। उसके चेहरे पर वही भाव कि वह प्रेमवश नहीं आई है, वह मजबूरी में मिलने नहीं आई है, वह तुम पर उपकार करने भी नहीं आई है। यह अलग बात है कि यही सब सच था। चेहरे बस यह कि बस यूँ ही आ गई। मैने हाथ में हाथ लिया, कुछ कठोर था..पहले की नर्म नहीं था। नीचे सफेज पायजामा (पता नहीं उसे क्या कहते हैं), पीठ पर लंबी चोटी, लहराते हुए चलना, सामने देखना और बात मुझसे करने वाल कातिल अंदाज। कोशिश करना की आँखे ना मिल पाए क्योंकि मिल गई तो उसका नाटक खत्म होने लगता है। धीरे से आगे बढ़ते मैंने कहा-यही तरीका है..कुछ दिन बात न करों तो तुम खुद ही आ जाते हो..तुम्हे झुकाने का बरसों से यही तरीका है..है ना? वह इसे अनसुना कर के बोली-मुझे भुख लगी है, कुछ खिलाओ। मैने शरारत कर कहा- नानवेज चलेगा..वो बोली खलिश के साथ हाँ और थोड़ी सी पीना भी है। इस बिल्डिंग के पार है एक दुकान , वो इमारतें देखती जा रही है..लगता है हम किसी कालेज के परिसर में हैं। ऊँची ऊँची लाल इमारतें। बाथरूम के पास से शार्टकट जाता है। हम घुसे मैने एकांत देखकर उसके कान पर चूम लिया। उसका प्रतिकार प्रतीकात्मक था..पर कोई प्रत्युतर भी नहीं था। आगे बढ़ते बढ़ते रास्ते भूलने लगे..गंदगी थी चारों तरफ आगे सब बंद बंद था। लगा कोई हमारे पीछ है..हम दीवारों पर चढ़े यहाँ गए वहाँ गए पर सब कुछ गड्डमड्ड। उसकी आँखों में मुझे खोने का गम, पीड़ा..सब कुछ खाली खाली सा पता नहीं क्या हुआ...और एक झटके से नींद टूट गई। क्या तुम मुझे स्वप्न में भी इसी तरह मिलोगी..क्या हम अपनी बात कभी पूरी कर पाएँगे...क्या एक बात जो मैं कहना चाहता हूँ और तुम सुनना वो कभी किसी जन्म मे नहीं कही जा सकेगी। शायद यह शाश्वत सत्य है हमारे प्रेम की तरह..।

प्रतिष्ठा

हम अकेले नहीं थे। हमारे साथ एक साईकिल थी जिसे हाथ में लिए हम कॉलेज से निकल रहे थे। और हवा को वो हिस्सा भी जो उसके दुप्पटे को मेरे हाथ पर ला ...