Sunday, April 4, 2010

जिंदगी के प्रोजेक्टर में अटके




`और क्या..`‍ फिर मौन.. शब्द गले में अटके। उन भावों को गला स्वर भी नहीं दे पाता। चुप में सबकुछ था, जो शब्द में कहीं नहीं था। फिर जैसे शब्दों ने खुद को छुपाने की जंग शुरू की..खामोशी के उलट वे कहते रहे.. वो मत सुनना जो हम नहीं कहते...पूरे आठ मिनट यह जंग चलती रही। रिश्ता वहाँ तक आ पहुँचा जहाँ शब्द बेमानी है..आवाज सुनकर या खामोशी गिनकर बात होती है। यह वही स्वर थे जो पहले कहते थे..मुझसे बात न करना...। अपने वादे को तोड़ते वक्त कैसा लगता होगा उसका चेहरा..क्या करते होंगे उसके हाथ, वो बाल, वो आँखे, वो सबकुछ जो उसके पास है। कैसे दिखते होंगे। कैसे कोई इतना बेकरार होता होगा, मजबूर होकर वो करता है जो वो बिलकुल नहीं चाहता। क्या यह प्यार है?...वो स्वीकार नहीं करता..संस्कार और दुनियादारी के बंधन करने भी नहीं देंगे। पर एक सच है जो दोनों की आँखों में हैं। जैसे एक नदी है सारे पत्थर उसे रोकते हैं, पेड़ उसे बाँधते हैं, हर चीज विरोध करती है, लेकिन वो मिलती उसी सागर में जाकर जहाँ उसका वजूद खोना है, जहाँ उसका `मैं` खत्म होना है। और सागर..उसका अपना क्या है..नदियाँ ही तो है, जो उसे बनाए है...उसके पास सिर्फ अंतहीन इंतजार है..किसी के आने का, विलीन होने का। दोनों के शाश्वत सत्य है। दोनों की कोशिश खुद को खत्म करने की, लेकिन दोनों लगे हैं अपनी पहचान बनाने में। खर्च करते हैं खुद को। काफी दिनों तक चलता है यह प्रयास। फिर एक दिन लगता है दुनिया एक भ्रम है, हम इसमें हैं ही नहीं, एक मायाजाल, एक जादू है। सांसे घुटने लगती है...जिंदा रहने के लिए हम दौड़ पड़ते हैं। अपने सच की तरफ..बस इसी दौड़ में टूट जाते हैं सारे बंधन..हमारे अपने वादे..संस्कार, दुनियादारी, सारे तर्क। और बात करते है...फिर बात करते वक्त ही याद आने लगती है वही दुनिया...फिर शब्द खामोशी का नकाब ओढ़ते हैं..हम कुछ नहीं कहते बस एक दूसरे को समझते हैं। इसी यायावरी में जिंदगी कट रही है, इसी दौड़ में किसी रोज फना हो जाएगे..और जिंदगी की फिल्म दिखा रहा प्रोजेक्टर का चक्का खाली घुमने लगेगा हमारी सारी फिल्म लपेट कर। क्या जब चैन मिलेगा..?

7 comments:

Shekhar Kumawat said...

और अगर हम ही ऐसे हैं तो -
खुदा जैसी किसी को हमारे बीच लाना जरूरी है क्या ??


ACHI RACHNA HE

http://kavyawani.blogspot.com/

SHEKHAR KUMAWAT

Anonymous said...

अरे भाईसा आप तो दार्शनिक हो गए। कहां छुपा था ये प्रोफेसर
dharmendrabchouhan.blogspot.com

प्रशांत शर्मा said...

thnx dharmendra jee...koi kahan kuch ban sakta hain sab waqt bana deta hain...

murli said...

nar ho na nirash ho....zindgi chalne ka naam hai....fir se S-5 me nomination dal do...

मिष्वी said...

दो कदम वो भी अगर साथ चल पडे़ होते
अगर
जिंदगी का सफर तब कितना सुहाना होता
उनकी आंखों में ही कट जाता रास्ता पूरा
न कोई मंजर होता और न ही जमाना होता


क्या कहते है आप? सही है न?

प्रशांत शर्मा said...

न कोई मंजर होता और न ही जमाना होता
..न कोई हसरत होती, न तमन्ना, न आरजू रहती...बिल्कुल सही कहते हैं आप...धन्यवाद.

Anonymous said...

gogi!seen your love poems.sorry but not liked.they are not love poems but poems of rationality....konse therma-meter me itnanaa power hai jo naap sake pyaar ki quantity........."itne shiqve hain to pyyar hoga hi nai....ye bataao,kabi sunaa hai..."uske dil se poocho jo patthar ki tarah chup rahti hai...." sory per mai apne gogi ki kavitaao se thodaa zyaadaa expect karti hu.... jhooti taarif nai karungi..... Khusi.

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