Sunday, June 1, 2025

इन दिनों जब कुछ नहीं हैं!

 

मुझसे कुछ भी नहीं हो पाया जैसे सब कुछ होते हुए भी कुछ हाथ नहीं आया। बड़ी गहराइयों से देखे तो बड़ा ज्ञान रहा, दोस्त थे, शहर था, सब कुछ ठीक ही था पर कुछ था जो निर्णय नहीं लेने देता है। और  कुछ निर्णय हो जाए तो कुछ दिनों में ऊब होने लगती है और प्रयास छूट जाते हैं।  इसी तरह जीवन निकल गया। जिसे चाहा, उसे पा नहीं सके, जो करना चाहते थे, वो नहीं कर पाए, जो मिला उसमें आकर्षण नहीं है, जो कर रहे वह जीवन यापन के लिए है, उसमें संतुष्टि का भाव नहीं है। एक अनमनापन है, जीवन में। किसी तरह बहलता नहीं मन। घर, परिवार, पैसा अधिकार, सम्मान सभी है। यह किसी  से जोड़ते नहीं है।  मुझे तो किसी के साथ रहना हैं। सबसे आगे नहीं रहना है। जिससे प्रेम करते हैं उस तक बात पहुंचती नहीं हैं। इच्छित प्रेम नहीं मिलता आप कितना भी प्रयास कर लें। इसलिए मन का विस्तार पीछे की ओर जाता है। उन लोगों के पास जिनसे कभी सुकून मिला था। मन करता है एक फोन कर लें। आवाज सुनकर ही मन हल्का कर लें। लेकिन फिर ख्याल आता है, वह अपने जीवन में व्यस्त है, क्यों आपके खालीपन के लिए किसी को परेशान किया जाए। यह तो हमारी अवस्था है, उसे तो किसी की आवश्यक्ता नहीं होगी। चारों तरफ से अपने आप आने वाले तनाव कम है, जो हम एक ओर खुद पैदा कर लें। शहर दर शहर घूमतें हुए, लोग दर लोग मिलते हुए मन कहीं लगा नहीं। इसी कारण किसी से जुड़ाव नहीं पो पाया और किसी को हम से भी नहीं हो पाया।

शादी और नौकरी ने आनंद से ज्यादा मर्यादाएं दी है, लगता है बांध दिया है। अब प्यार के लिए किसी के पास जा नहीं सकते, काम और कुछ कर नहीं सकते। और जो उपलब्ध उनसे जिम्मेदारी का भाव ज्यादा है, प्यार नहीं है। घर से दूर रहने के कारण घरवालों से एक संवादहीनता की स्थिती बन गई, वो मेरी बातों को समझ नहीं पाते है, मैं भी उनकी बातों पर सही प्रतिक्रिया नहीं दे पाता हूं। रही बात साथी की तो लगता है एक रिश्ता है जिसके कारण साथ रहना पड़ रहा है। जिम्मेदारी है प्यार करने की। इन दिनों रिश्तेदारों ने भी मुंह मोड़ लिए हैं। कभी लगता मेरी सफलता के कारण वो दूर हो गए, लेकिन मैंने कभी किसी को नीचा समझा ही नहीं हैं। मुझसे जो भी जुड़ा है उसने तारीफ की मैंने उसे सही सलाह दी, जीवन का नजरियां दिया। लेकिन क्या हो जाता है लोग मुझसे दूर हो जाते है। कई बार लगता है ज्यादा सफलता ज्यादा ज्ञान होना दूर करता है। दूसरा किसी के काम नहीं करवा पाना भी एक वजह है। मैं लोगों को देखता हूं उनके बड़े संबंध होते हैं, वो लोगों के काम आते हैं, लोगों से काम निकलवाते भी हैं। वो लोग अपना सम्मान करवाना चाहते हैं, वो लोग कुछ एक्ट्रा कमाना चाहते हैं या क्या चाहते हैं मालूम नहीं। मैं इनमें से कुछ नहीं चाहता न सम्मान न प्रेम न पैसा। एसे बैरागी मन से कोई क्यों जुड़े। लेकिन मैं अकेला नहीं रहना चाहता। अब इस नेचर को बदलने का मन होता है। उसके लिए निर्णय लेता हूं पर सफल नहीं होता। अपने आप बदल के कितने दिन रह सकते हैं। पर मैं ऐसा क्यों हूं। मुझे उन चीजों में आनंद क्यों नहीं आता, जिसके लिए लोग दिन रात लगे रहते हैं। क्यों मुझे यह लेख छपवाना, किताबें लिखना, घूमना, प्रेम के लिए प्रयास करना, किसी कॉलेज में पढ़ाना और इत्यादि के लिए प्रयास करने का मन नहीं करता। इसका एक कारण आलस्य भी हो सकता है। दूसरा बड़ा कारण इन निस्सार होना है। तीसरा है ऊब जाना है। चौथा है किस्मत जो आप को खुश रहने के किसी प्रयास को पूरा नहीं होने देती। इस किस्मत को मैं कई बार आजमा चुका हूं। ऐसा नहीं की कोई खुशी  मिली नहीं पर वो मिली जिनके लिए प्रयास नहीं किए गए अकस्मात हो गया। जिसे मैं चाहूं जिसके लिए प्रयास करूं वो काम नहीं होगा या विलंब से होगा। ऐसे में कुछ करने का मनोभाव कैसे बने और जब कुछ करें ही नहीं तो लोग कैसे जुड़गे मन कैसै बहलेगा। फिर इसी तरह रहना है यहीं अभिशप्त सा जीवन है।  

Thursday, March 6, 2025

तुम्हे क्या लगता है!


कई सालों के बाद फ़ोन लगाया,


`हलो`...


तो उसने कहा... `बोलो...`


मैने कहा `मैं बोल रहा हूँ `!

`हाँ पता है...और बताओं...`

`तुम्हे अजीब नहीं लगा इतने दिनों बाद फ़ोन आया`...लड़खड़ाते हुए शब्दों से मैने कह दिया।

`नहीं...`

फिर खामोशी । खामोशी में कुछ सुनने के लिए मोबाइल कान पर ज़ोर सटा दिया, सोचा मन की थाह पा जाउं। पर दोनों और से खामोशी ही रही।

फिर मैने कहा-`चुपचाप रहती हो तो अच्छी लगती हो...`

`तुम भी...`

फिर चुप्पी.। सांसों की आवाज़ के सहारे दोनों कुछ कहते रहे, सुनते भी रहे, आंखों से लेकर मन तक सब भींग गए, गीलापन समेटते हुए मैने पूछ लिया।

`मेरी याद आती है, तुम्हे`!

और भी लंबी खामोशी...कई जवाब मेरे जहन मैं आते रहे, कुछ अच्छा भी नहीं लगा, क्यों पूछ लिया होगा मैने?

बड़ी देर बात उसने कहा...

`तुम्हे क्या लगता है...`

मैं क्या कहता..

और इस बार भी अनुतरीत रह गया सवाल...।

इन दिनों जब कुछ नहीं हैं!

  मुझसे कुछ भी नहीं हो पाया जैसे सब कुछ होते हुए भी कुछ हाथ नहीं आया। बड़ी गहराइयों से देखे तो बड़ा ज्ञान रहा, दोस्त थे, शहर था, सब कुछ ठीक ...